एक बार मैं टीवी पर नृत्य का एक कार्यक्रम देख रहा था । एक बच्चे ने बहुत सुंदर और मनमोहक प्रस्तुति दी । उसके बाद उसने बताया कि उसे नृत्य से बहुत प्रेम है, लेकिन उसका परिवार नृत्य के पक्ष में नहीं है । उसका परिवार यह चाहता है, ख़ासकर उसके पिता, कि वह पढ़ाई-लिखाई करे; नृत्य में समय बर्बाद न करे । उसके पिता रिक्शाचालक हैं । जब उनसे पूछा गया कि, “आप अपने बच्चे पर दबाव क्यों बनाते हैं नृत्य न करने के लिए ?” तो उन्होंने कहा कि, “मैं यह नहीं चाहता कि मेरा बेटा भी बड़ा होकर रिक्शा चलाए । यदि बच्चा ठीक ढंग से पढ़-लिख लेगा, अच्छी नौकरी मिल जाएगी, तो उसका जीवन सँवर जाएगा । और यदि नृत्य ही करता रह गया और नौकरी न मिली तो वह भी ताउम्र बोझ ही ढोता रहेगा ।”
हममें से ज़्यादातर लोगों की यही सोच है जो इन रिक्शाचालक की है । हम इतने हिसाब-किताब में जीते हैं, इतना ज़्यादा भविष्य में जीते हैं कि हम यह भूल ही जाते हैं कि जीवन जीने के लिए है । और नृत्य, गायन, हर प्रकार की कला जीवन जीने की कला है, जीवन को गहराई में समझने की कला है । किसी भी प्रकार की रचनात्मकता जीवन को एक गहन तृप्ति, गहन आनंद से भर देती है । एक फुलफिलमेंट, एक पूर्णता का अहसास होता है कला के द्वारा ।
लेकिन हम लगातार स्वयं को और दूसरों को भी तथाकथित व्यवहारिकता सिखाते रहते हैं कि जीवन में प्रैक्टिकल होना चाहिए । नृत्य करने से पेट नहीं भरता । और फिर आत्मा तो हमारे लिए है ही नहीं, तो उसे तृप्त करने का प्रश्न तो उठता ही नहीं । हम तो बस शरीर हैं । शरीर तृप्त होना चाहिए बस । इसे सजा लो, सवाँर लो, यही तृप्ति है । कभी शरीर से ऊपर उठकर किसी और चीज़ की खोज ही नहीं की । और जिसकी खोज ही नहीं की उसे तृप्त करने का सवाल कहाँ उठता है ?
उन रिक्शाचालक को यह चिंता है कि कहीं बड़े होकर उनका बेटा भी रिक्शाचालक ही न बने । लेकिन कभी ग़ौर करके देखें कि हममें से जो भी ऐसी चीज़ करता है जो उसे पसंद नहीं है, जिससे उसे प्रेम नहीं है, वह रिक्शाचालक ही तो होता है । क्या अर्थ है रिक्शाचालक का ? एक रिक्शाचालक वह होता है जो दूसरो का बोझ ढोता है । यदि हम अपने जीवनों को देखें तो हम पाएँगे कि हम भी दूसरों का बोझ ही तो ढो रहे हैं । किसी ने कह दिया कि यह बन जाओ, हम वह बनने में जुट गए; किसी ने कह दिया वह बन जाओ, वह बनने में जुट गए । हमारे अपने ख़ुद के चुनाव कितने हैं ? और न केवल अपने जीवनयापन के बारे में दूसरों की राय, ओपिनियन का बोझ ढोते रहते हैं; बल्कि “हम क्या हैं ?” और “हमें क्या होना चाहिए ?” अपनी एसैंस, essence, में यह भी हमें दूसरे ही बताते हैं । यही सारे बोझ हम ढोते रहते हैं । क्या हम रिक्शाचालक नहीं हैं ? वे लोग जो अपने हिसाब से जीवन नहीं जी रहे, वे सब चीज़ें नहीं कर रहे जिनसे उन्हें तृप्ति मिलती है, आनन्द मिलता है, क्या वे रिक्शाचालक नहीं हैं ?
वह बच्चा नृत्य करेगा तब भी, उसके पिता के अनुसार, रिक्शाचालक बनेगा, और नहीं करेगा तब भी बनेगा क्योंकि वह फिर जीवन को ढो रहा होगा ।
मैं कितने डॅाक्टरों से मिला हूँ । उनमें से ९५ % मुझे रिक्शाचालक ही लगते हैं । मैं हमेशा यह आश्चर्य करता था कि डॅाक्टरों के चहरे इतने उदास और मृत क्यों लगते हैं । इतनी बड़ी पदवी मिलने के बाद, इतना सब पढ़ने के बाद, सम्पन्न होने के बाद, धनधान्य से भरपूर होने के बाद, चेहरे में कोई चमक नहीं । बैठे हुए हैं अपनी कुर्सियों पर मुर्दों जैसे । बाक़ी ५% में चमक दिखी । एक उमंग, एक पुलक दिखी । फिर एक दिन इसका विश्लेषण करने पर मुझे यह बात समझ आई । यदि हम भारतीय समाज की बात करें तो यहाँ बड़ी लालसा है लोगों में डॅाक्टर शब्द को लेकर, लोलुपता है कि नाम के आगे डॅाक्टर लग जाए तो मानो मोक्ष मिल गया ! इतना महान हो जाता है कोई व्यक्ति यदि उसके आगे डॅाक्टर लग जाए ! तो कहीं-न-कहीं जो ९५% लोग हैं उनकी गहरे मे लालसा यही रही होगी कि उनके आगे डॅाक्टर शब्द लग जाए । स्टेटस सिम्बल है यह शब्द, एक सामाजिक रुतबा है इसका । अब हो सकता है कि कोई डॅाक्टर कुक बनना चाहता था । उसे नए-नए व्यंजन बनाने का शौक़ था । लेकिन लोगों ने कहा होगा कि, “रसोइये बनोगे ?! इससे क्या रखा है ? लोग क्या कहेंगे तुम्हारे माँ-बाप से कि उनका बेटा रसोइया है, शेफ़ है !” अब, उसे सुख मिलना था उस काम में । नए-नए व्यंजनो के साथ प्रयोग करता । जीवन में स्वाद होता, जीवन में सुगंध होती । लोगों ने भ्रमित किया तो अपनी पूरी ऊर्जा डॅाक्टर बनने में लगा दी । व्यर्थ में । और आज बनकर बैठे हैं मुर्दे से । जिसका मन किचन में जाता है क्लिनिक में कैसे रहेगा ? ऐसे कितने लोग होंगे–कोई बाँसुरी वादक बनना चाहता होगा, कोई खिलाड़ी बनना चाहता होगा...।
डॉक्टरों के हिसाब-किताब का सिलसिला उनके करियर के चुनाव तक ही सीमित नहीं है । आपने शायद ग़ौर किया हो कि डॅाक्टरों के बीच एक प्रकार की परम्परा बन चुकी है कि यदि लड़का डॉक्टर है तो उसके लिए डॉक्टर पत्नी होनी चाहिए । ऐसा क्यों ? इसलिए कि पिता जी ने इतना बड़ा अस्पताल खोल दिया है अब उसे देखेगा कौन ? दो लोग होगें घर के तो बाहर के डॉक्टरों को वेतन नहीं देना पड़ेगा । यह सब चल रहा है समझदारी के नाम पर, प्रेक्टिकेलिटी के नाम पर ! और यही लोग सबसे समझदार लोग माने जाते हैं समाज के ।
ऐसी ही कुछ परम्परा व्यवसाययों, उद्योगपतियों के परिवारों में भी देखने को मिलती है । पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही व्यवसाय को आगे बढ़ाने में लोग बड़ा गर्व महसूस करते हैं । ज़्यादातर अभिनेता भी इसी सोच को अपनाते हैं । वे भी अपने बच्चों को सुरक्षा और सहूलियत के नाम पर अपनी ही राह पर चलने की नसीहत देते हैं । ऐसी परम्पराओं की जड़ें इतनी गहरी हो जाती हैं कि नई पीढ़ी यह सोच ही नहीं पाती कि वह अपनी राह स्वयं चुनने के लिए स्वतंत्र भी है ।
वे रिक्शाचालक तो अनपढ़ थे, और यदि उनकी यह सोच है तो चलो फिर भी समझा जा सकता है । पर बड़े-बड़े पढ़े-लिखे, तथाकथित शिक्षित लोग ऐसा क्यों कर रहें हैं ? इसका परिणाम यह है कि हर कोई दुनिया में रिक्शाचालक बनता जा रहा है, हर कोई बोझ ढोता जा रहा है ।
आप भी यदि ऐसा बोझ ढो रहे हैं तो अब समय आ गया है कि वह बोझ उतार के फैंक दें । नृत्य करें, जीवन को जीएँ, कला को समझें, वह करें जो आपको अच्छा लगता है । नहीं तो, याद रखिए, आप रिक्शाचालक बनकर ही ख़त्म हो जाएँगे ।